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गीता प्रेस, गोरखपुर >> सिद्धान्त एवं रहस्य की बातें

सिद्धान्त एवं रहस्य की बातें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 967
आईएसबीएन :00000

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सिद्धान्त और रहस्य की बातें.....

Sidhant Evam Rahasya Ki Batein a hindi book by Jaidayal Goyandaka - सिद्धान्त एवं रहस्य की बातें - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


निवेदन



परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका जिन्होंने गीताप्रेस की स्थापना की थी, पारमार्थिक जगतकी एक महान् विभूति हुए हैं। उनपर भगवान ने विशेष कृपा करके उन्हें प्रकट होकर स्वेच्छा से चतुर्भुज रूप से दर्शन दिये। भगवान् प्रकट हुए तब श्रीगोयन्दकाजी के मनमें फुरणा हुई कि भगवान ने ऐसी महान कृपा किस हेतु की। उनको प्रेरणा हुई कि भगवान चाहते हैं कि मेरी निष्काम भक्ति का प्रचार हो। इस उद्देश्य की पूर्तिहेतु श्रीगोयन्दकाजी द्वारा बड़ा भारी प्रयास हुआ। उनका कहना था कि पारमार्थिक उन्नति में चार चीजें विशेष लाभप्रद हैं- सत्संग, ध्यान, नामजप भजनादि तथा निष्काम सेवा-इसमें भी उनका सबसे ज्यादा जोर सत्संगपर था। इसी उद्देश्य से उन्हें कभी सत्संग कराते थकावट नहीं मालूम देती थी, बल्कि वे बड़े उत्साह से घंटों-घंटों प्रवचन करते रहते थे।

गीताभवन स्वर्गाश्रममें लगभग चार महीने सत्संगका समय रहता था। वहां का वातावरण बड़ा सात्विक है, इसलिये वहां पर दिए गये प्रवचन पाठकों को विशेष लाभप्रद होंगे। इस भावसे उनके प्रवचनों को पुस्तकाकर प्रकाशित करने का विचार हुआ है। किस स्थलपर, किस दिनांक को उनका यह प्रवचन हुआ यह लेख के नीचे दिया है। कुछ छोटे प्रवचन एक ही विषयके होने से उन्हें एक ही लेखमें संग्रहित कर दिया गया है। इन प्रवचनों में कई ऐसी प्रेरणात्मक बातें हैं जो मनुष्य को परमार्थ-मार्ग में बहुत तेजी से अग्रसर करती हैं। उदाहरण के तौरपर बताया जाता है कि ‘मैंपन’ (अहंता) को पकड़ने में जितना अभ्यास तथा समय लगा है, उतना समय और अभ्यास  इनके छोड़ने में नहीं लगता। जैसे मकानको बनाने में  बहुत समय लगता है, परन्तु उसके तोड़ने में बहुत कम समय लगता है। ऐसी बहुत-सी अमूल्य बातें इन प्रवचनों में आयी हैं।

हमें आशा है कि पाठकगण इन प्रवचनों को एकाग्र मन से पढ़ेंगे एवं मनन करेंगे। यह निश्चय कहा जा सकता है कि इनसें हमें विशेष आध्यात्मिक लाभ होगा।


-प्रकाशक


 स्वाभाविक ध्यान की महत्ता



मेरे मनमें यही बात आती है कि विवेक और वैराग्यपूर्वक परमात्मा का ध्यान हो। यहाँपर स्वाभाविक ही संसार से वैराग्य होकर उपरामता और  बहुत भारी शान्ति परिपूर्ण हो रही है। ध्यान में उत्तरोत्तर मग्न रहे- यहाँ स्वाभाविक ध्यान हो रहा है। ध्यान स्वतः होना चाहिये ध्यान करे नहीं, स्वावाभाविक ही हो। समय और स्थान के प्रभाव से मानो शान्तिकी बाढ़ आ गयी- आनन्दका ठिकाना नहीं है। स्वाभाविक ही शान्ति हो रही है, जितनी शीतलता चाहे उतनी शीतलता है, स्वाभाविक ही मधुर-मधुर हवा आ रही है, सात्विक, शुद्ध हवा आ रही है। गंध, देश, काल, संग सब सात्विक है। परमात्माका ध्यान स्वतः ही हो रहा है। संसार का चित्र बुलाया हुआ भी नहीं आता। कोई प्रयत्न का काम नहीं परमात्मा का ध्यान आप ही हो। कैसा वातावरण है।

तबियत में शान्ति की तरी है। विक्षेपरहित अवस्था में स्वाभाविक ध्यान हो रहा है। विक्षेपका अभाव होने  से परमात्मा का ध्यान होने से ‘वीतरागविषयं वा चित्तमं’ होने से चित्त स्थिर हो जाता है। चित्त स्थिर होनेका चौथा उपाय ‘यथाभिमतध्यानाद्वा’ जो अपने को अभिमत हो उसका ध्यान करने से चित्त स्थिर हो जाता है। परमात्मा प्रकट हो चाहे नहीं-निराकार और साकार सब परमात्माका ही रूप है, एक है। जैसे परमाणुरूप जल, बादल, बूँद और ओले धातुसे एक जल ही हैं, वैसे ही निराकार और साकार सब एक है परमात्मा निराकाररूप, आनन्दमय, रसरूप हैं। वे चाहें उसी रूप में रहें, आनन्द और रस एक है।
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प्रवचन दिनांक 18-3-1947 सायंकाल 6 ।। बजे, गंगा किनारे, स्वर्गाश्रम।

मेरे तो यह मनमें आयी कि सबका ध्यान परमात्मा में लग जाय। यह समय स्वाभाविक ही ध्यान का समय है। इस समय गंगा की गन्ध, गंगाकी रेणुका का आसन, सायंकाल का समय है। और सत्संगी बातें विशेष मदद देती हैं। दूसरों के ध्यान की क्रिया भी विशेष मदद देती है। भोजन के पूर्वका काल ध्यान में मदद देता है। सन्ध्या का समय ध्यान में मदद देता है। वैराग्य, उपरति ये ध्यान में मदद देते हैं। संसार की स्फुरणाका अभाव, आलस्य का अभाव स्वाभाविक ही होता है। ध्यान में ये ही दो विघ्न हैं—आलस्य और विक्षेप। इन सब बातों का खयाल करके ध्यान में खूब मस्त हो जाय। सब संसार ढह जाय, याद करने पर भी याद नहीं आवे। आकृतिमात्र, स्फुरणामात्र का अभाव करे। ईश्वर में बार-बार ऐसी ऐसी वृत्तियाँ हों, बस एक परमात्माके सिवाय दूसरी वस्तु है ही नहीं। शरीर, संसार और अपने-आपको भूल जाय उपरति समय संसार को याद करने पर भी याद नहीं आये। स्वाभाविक ही कैसी शान्ति, आन्नद और ज्ञानकी बाहुल्यता है। खूब ज्ञानका पुंज है, अज्ञान और अज्ञानका कार्य पासमें नहीं आता। ज्ञानकी इतनी बाहुल्यता है कि रोम-रोम में, शरीर में, मन बुद्धि में ज्ञानकी दीप्ति रह जाय। शरीर और संसार का अत्यन्ताभाव होकर एक ज्ञान ही रह जाय। ईश्वर की बड़ी भारी दया है। आनन्द-ही-आनन्द है। दूसरी वस्तु है ही नहीं। शरीर और संसार का ज्ञान ही नहीं हो। यदि जाय तो एक आनन्द के सिवाय और कुछ नहीं है।


महात्मा के संग से लाभ



गीताकी कसौटी के अनुसार महात्माके लक्षण घटावें तो बहुत कम लोग महात्मा उतरेंगे।
महात्मा के पास जानेवाला झूठ बोलनेवाला होगा तो वह भी उनके पास कहेगा कि और जगह तो झूठ बोल देते हैं पर क्या आपके पास भी झूठ बोलेंगे ? यह महापुरुषों का प्रभाव है। समता, प्रेम, दया, ज्ञान, प्रकाश, शान्ति, आनन्द का प्रभाव पड़ता है। आकाश में स्थित भगवान का प्रभाव पड़ता है और श्रद्धा हो तो अधिक पड़ता है।

ईश्वर या महात्मा हमें याद कर लें तो बड़ा लाभ है। लौकिक व्यवहारमें भी यही बात है कि कोई बड़ा आदमी हमें याद करे तो हमें प्रसन्नता होती है। बड़ा आदमी किसी प्रकार याद करे, लाभ है। दण्ड देने के लिये याद करे तो भी उनका अनुग्रह ही है। लाभ-ही-लाभ है। अंगद जी ने हनुमान जी से कहा था कि भगवान को समय-समयपर मेरी याद दिलाते रहना। इससे मेरा कल्याण हो जायेगा। अंगद का भाव है कि भगवान मुझे याद करेंगे तो कल्याण में कोई शंका नहीं है।

महात्मा से किसी प्रकार सम्बन्ध हो जाय तो लाभ-ही-लाभ है। महात्मा के दर्शन, स्पर्श, भाषण किसी से भी सम्बन्ध हो जाय। नाम- उच्चारण किसी प्रकार हो जाय। वैसे ही भगवान में भी कोई भाव हो दास्य भाव, सख्यभाव, माधुर्य भाव कोई हो। महात्मा से संग से और भगवान में भाव से लाभ है। ईश्वर या महात्मा अपना भार ले लें तो निर्भय हो जाना चाहिये। शरण होनेपर निश्चिन्त हो जाना चाहिये। शरण होने निश्चिन्त नहीं हुआ तो वह शरण का तत्त्व नहीं समझा।
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प्रवचन-दिनांक 19 । 3 । 1947 प्रातःकाल 7।। बजे, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम।
महात्माओं की कृतज्ञता

एक आदमी गीता का प्रचार करता है वह एक नम्बर है, दूसरा स्वाध्याय करता है यह दूसरे नम्बर पर है, तीसरा सुनता है यह तीसरे नम्बर पर है। गीता और शास्त्र के अनुसार यह बात है और युक्ति से भी यही बात मालूम पड़ती है, सुनने वाले के लिए भगवान् ने बताया है-

सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्रुयात्पुण्यकर्मणाम्।। (गीता 18 । 71)
वह भी पापोसे मुक्त होकर उत्तम कर्म करनेवालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा। उसके लिये मुक्ततिककी गुंजाइश है। गीता का प्रचार करनेवाले के लिये भगवान ने कहा है-


न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियकरो भुवि।।


(गीता 18 । 69)

 
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।

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